Sunday, January 16, 2011

Eli Eli Lama Sabachthani

कुछ तो कमि रखी होती उसके ईमान में,
थोड़ा तो सब्र होता, रुख-ए-आसमाँ में |
होंगे कई मसीहा ऐ खुदा तुम्हारे पास,
एक छोड़ दिया होता हमको, इस जहां में |
ईमान है आधा खुला, आधा ढका पडा,
एक पूरा कोई इंसान नही आता ध्यान में |
सुनता नही है कोई यहाँ सच्चाई की सदा,
यकीन कौन करेगा, अब इन बद-गुमानों में |
यह सोच नहीं बाकी, क्या अच्छा है, क्या बुरा,
तकसीम करते है कुछ तो, है वो इंसानों में |
करते रहेंगे वो ही, जो हुआ है उनसे पहले,
तोलेंगे नहीं किसी को, वक़्त की ढलान से |
जहालत कहे इसे हम, या किस्म संग-दिली की,
रोया नहीं है कोई, अब तक तेरे बयान से |
दिखला दिया है नीचा, बुलाके हम को काफ़िर,
एक बार पूछा होता उन्हने मेरे इमान से |
एक दूजो को देते है, तोहमतो के नज़राने,
गढ़ती नहीं है नज़रें, खुद अपने गिरेहबान में |
मानता है हर एक आदमी को खलील तुम्हारा,
क्यूँ छोड़ दिया हमको फिर युहीं दरमियाँ में |

- खलील सावंत (~2004)

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